चेंदरू चरित

जो लोग हरक्यूलिस साइकिल की सवारी को जानदार मानते हुए वाल्व वाले रेडियो से प्रसारित होने वाली खबरों पर यकीन करते रहे हैं वे थोड़ा -बहुत तो जानते हैं कि चेंदरू कौन है और उसने क्या कमाल किया था. बहुत दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उन लोगों का परिचय भी चेंदरू की दुनिया से हो सकता है जो कभी मधु मुस्कान या चकमक जैसी पत्रिकाओं के जरिए अपने ढंग की खूबसूरत दुनिया को तलाशने का यत्न करते रहे हैं. मधु मुस्कान और चकमक का जिक्र भी यहां इसलिए किया जा रहा है कि किसी समय चेंदरू कॉमिक्स का हिस्सा रह चुका है. वास्तव में प्यार उड़ेलने के लिए बनाए गए एक साहसी लड़के का नाम चेंदरू था.

पिछले साल आई एक भयानक बाढ़ में चेंदरू के घर के साथ-साथ उसकी बहु मंगनी और नाती प्यारी बह गए थे

लेकिन चेंदरू अब लड़का नहीं रहा. वह बूढ़ा हो चला है, और तो और अब उसकी स्मृति भी कमजोर हो चुकी है. बस्तर के नारायणपुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर मौजूद एक गांव गढ़बेंगाल में रहने वाले चेंदरू पर स्वीडन के फिल्मकार अर्ने सक्सडोर्फ जंगलसागा नाम की एक फिल्म बना चुके हैं. यह फिल्म कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रदर्शित व प्रशंसित हो चुकी है.साठ के दशक में सक्सडोर्फ की पत्नी एस्ट्रिड बर्गमैन ने चेंदरू और उसके बाघ दोस्तों की गतिविधियों को लेकर ‘वाय सू अमिगो एल टाइगर’ नाम से एक पुस्तक भी लिखी थी. जब स्वीडिश भाषा में प्रकाशित इस पुस्तक को चहुं ओर प्रशंसा मिली तो न्यूयार्क के एक प्रकाशक हारकोर्ट ब्रेश ने विलियम सेनसोम के सहयोग से इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया. अंग्रेजी में पुस्तक का नाम ‘चेंदरू द ब्वॉय ऐंड द टाइगर’ रखा गया था. किताब के अंग्रेजी संस्करण को भी जंगल के जनजीवन से मुहब्बत करने वाले सैलानियों की जबरदस्त सराहना मिली थी.

आप एक बार फिर यह सोच सकते हैं कि चेंदरू में ऐसा क्या था जिसकी वजह से एक विदेशी फिल्मकार को फिल्म बनानी पड़ी और उनकी लेखिका पत्नी को अपनी कलम चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा. दरअसल चेंदरू घने जंगलों से घिरे जिस गांव में रहता था (अब भी रहता है) वह गांव विकास की परछाइयों से कोसों दूर था. नौ साल का होते-होते चेंदरू धनुष चलाने की कला में माहिर हो चुका था. अपने परिवार के लिए खरगोश व बटेर तो वह यूं ही तीर फेंककर बटोर लिया करता था. बताते हैं कि नये विषयों की तलाश में भटकने वाले अर्ने जब एक रोज अपने कैमरे के साथ अबूझमाढ़ के जंगलों की खाक छान रहे थे तो उन्होंने एक विचित्र-सी घटना देखी. नदी में एक काला-कलूटा सा लड़का (चेंदरू) बगैर जाल लगाए मछलियों को दौड़ लगाकर पकड़ रहा था. अर्ने को लड़के की मछली पकड़ने की नयी शैली ने बहुत प्रभावित किया. उन्होंने लड़के की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो चेंदरू ने मां की बातों को याद करते हुए हाथ मिलाने से इनकार कर दिया. चेंदरू को उसकी मां ने यह बता रखा था कि जो लोग गोरे होते हैं उन्हें कोई न कोई बीमारी जरूर होती है. शायद ‘कोढ़’. अर्ने चेंदरू से हाथ मिलाए बगैर वापस नारायणपुर के डाक बंगले लौट गए, लेकिन उनके दिमाग में एक खूबसूरत कहानी ने आकार लेना प्रारंभ कर दिया. उन्हें लगा जो बच्चा निर्भीक तरीके से बड़ी-से बड़ी मछलियों को दौड़कर पकड़ सकता है वह कुछ भी कर सकता है. कुछ समय बाद अर्ने ने चेंदरू के पिता और कुछ स्थानीय लोगों से फिल्म निर्माण में सहयोग देने के लिए बात की. अबूझमाढ़ के लोगों ने कभी रेलगाड़ी नहीं देखी थी, वे भला यह कैसे जानते कि फिल्म क्या बला है. वे अर्ने की हर बात पर सिर हिलाकर हामी भरते रहे.

अर्ने वापस स्वीडन चले गए, लेकिन जब दोबारा लौटे तो उनके साथ सर्कस के शेर-चीतों के अलावा पूरी यूनिट थी. जिस दौरान यह फिल्म बन रही थी उस वक्त भारतीय सिने अभिनेताओं को भी प्रचार के स्तर पर शेर से दो-दो हाथ करने का गौरव हासिल नहीं हुआ था, इसलिए अर्ने की यूनिट से जुड़े कुछ लोगों ने जबरदस्त ढंग से इस बात का प्रचार-प्रसार किया कि अबूझमाढ़ के जंगलों में विचरण करने वाले कुछ बाघ एक आदिवासी बच्चे को उठाकर ले गए हैं. बाघों ने बच्चे को मारने कीे बजाय पाला-पोसा. बच्चा बड़ा होकर शेरों से बात करने लगा है. वह शेरों के साथ घूमता है, फिरता है और उन्हें डांटता है. वह शेरों को जहां उठने-बैठने के लिए कहता है शेर वहीं उठ-बैठ जाते हैं. यूनिट के लोगों का यह प्रचार इसलिए भी कामयाब हुआ कि सर्कस के शेर और तेंदुए भी चेंदरू से मुहब्बत करने लग गए थे. बताते हैं कि एक शेर तो चेंदरू से इस कदर घुलमिल गया था कि वह चेंदरू का आदेश मिलने के बाद ही खाना खाता था.

फिल्म ‘जंगलसागा’ में चेंदरू को झरने में लड़की को नहाता देखकर ओ.. ओ..वो चिल्लाने वाला टारजन बताने की चेष्टा तो नहीं की गई थी, लेकिन अर्ने ने उसे विश्वसनीय और स्वाभाविक ढंग से जीवन जीने वाला लिटिल टारजन दर्शाने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ी थी. अर्ने का टारजन अपनी जातीय परंपराओं के बीच जीवन की बेहतरी के लिए जद्दोजहद करता हुआ नजर आता था.फिल्म में शेर के पिंजरे व अन्य सामानों को महज तीन रुपये की रोजी में इधर से उधर लाने का काम-काज करने वाले सत्येर सिंह बताते हैं, ‘हम सब छोटे थे लेकिन चेंदरू के साहस को देखकर अपने को बड़ा समझने लगते थे. वह भी उन लोगों के बीच जो विदेशी थे.’
गढ़बेंगाल के इक्का-दुक्का लोग जो चेंदरू के समकालीन हैं, वे अपनी याददाश्त पर जोर डालने के बाद सिर्फ इतना बता पाते हैं कि देश आजाद होने के आठ-नौ साल बाद एक गोरा-सा आदमी फुलपैंट और टोपी पहनकर जंगल-जंगल मंडराने वाली मेम के साथ उनके गांव पहुंचा था. अपने बीच किसी गोरे को पाकर काले लोग थोड़ा भयभीत रहते थे, लेकिन जल्द ही उनका भय दूर हो गया क्योंकि गोरा आदमी उनकी हथेलियों पर कुछ सिक्कों को रखने के साथ-साथ सम्मान भी देने लगा था. बाकी गांव के लोगों को यह नहीं मालूम कि चेंदरू ने कौन- सी पिक्चर में काम किया था. उसका डायरेक्टर कौन था. वास्तविकता तो यह भी है कि अबूझमाढ़ के थोड़ा विकसित मसलन किराना दुकान खुल जाने वाले शहरी इलाके के लोगों ने भी अब तक वह फिल्म (जंगल सागा) नहीं देखी है जिसमें चेंदरू ने मुख्य भूमिका निभाई है. ऐसा शायद इसलिए भी हुआ कि फिल्म के प्रदर्शन को लेकर अविभाजित मध्य प्रदेश की सरकार ने भी रुचि नहीं दिखाई थी और छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने इस दिशा में कोई कदम उठाया है.फिल्म नेट पर मौजूद है जिसे देखने के लिए कुछ डॉलर खर्च करने पड़ते हैं, और तो और जंगलसागा बनाने वाली फिल्म कंपनी ने फिल्म के ओरिजिनल पोस्टरों की कीमत भी 15 डॉलर तय कर रखी है.

अर्ने वर्ष 1954 में अबूझमाढ़ पहुंचे थे. काफी रिचर्स के बाद उन्होंने वर्ष 1955 में फिल्म की शूटिंग प्रारंभ की थी. पांच रील और 88 मिनट की फिल्म में प्रसिद्ध सितारवादक रविशंकर ने संगीत दिया था. फिल्म का पहला प्रदर्शन 26 दिसंबर 1957 को स्वीडन के एक सिनेमाघर में हुआ था. बाद में यह सिलसिला चलता रहा. वर्ष 1958 में इसे केंस के फिल्म फेस्टीवल में भी प्रदर्शित किया गया था. फिल्म के प्रचार के लिए अर्ने ने एक जोरदार तकनीक अपनाई थी. वे अंतरराष्ट्रीय मीडिया को पहले फिल्म दिखाते बाद में उसके हीरो चेंदरू से रूबरू करवाते थे. आधुनिक उपकरणों और जीवन पद्धति के बीच जीने वाला मीडिया अपने बीच आदिम युग का प्रतिनिधित्व करने वाले बालक को देखकर हतप्रभ हो उठता था. विदेश में चेंदरू को लेकर खूब खबरें प्रकाशित हुई. किसी ने उसे रियल टारजन बताया तो किसी ने जंगल का असली मोंगली. चेंदरू लगभग सात महीनों तक अर्ने के घर पर ही रहा. इस बीच अर्ने ने चेंदरू को घुड़सवारी का प्रशिक्षण दिया और बंदूक चलाने की कला भी सिखाई. बदले में चेंदरू ने भी अर्ने के बच्चों को पेड़ के पत्तों में तंबाकू भरकर सुट्टा मारने का हुनर सिखाया. फिल्म के प्रदर्शन के कुछ महीनों के बाद जब फिल्म की चमक धुंधली पड़ी तब एक रोज अचानक अर्ने को यह लगा कि वे अपने फायदे के लिए स्वाभाविक जिंदगी जीने वाले बच्चे को अपने साथ रखकर अन्याय कर रहे हैं. कुछ समय पहले जब दिल्ली के प्रमोद और नीलिमा माथुर ने उनकी फिल्म जंगलसागा के निर्माण संबंधी पहलुओं को लेकर जंगल ड्रीम्स नाम से एक वृतचित्र बनाया तब यूरोपीय सिनेमा की इस बड़ी हस्ती ने अपने साक्षात्कार में यह स्वीकारा कि चेंदरू बहुत आकर्षक, प्यारा और इंटलीजेंट लड़का था. उसके साथ किसी भी भाषा में बातचीत करना बहुत आसान था. अर्ने ने यह माना कि वे चेंदरू से बेइंतहा मुहब्बत करने लगे थे और उसे गोद लेने का मन बना चुके थे लेकिन…..
लेकिन… शायद यह तय था कि चेंदरू गोरे बच्चों के बीच बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकता था. उसे तो वापस लौटना ही था.चेंदरू जब वापस लौटा तो उसके पास एक चमचमाती साइकिल थी. रेडियो था और भी बहुत कुछ. धीरे-धीरे सारी चीजें नष्ट हो गईं.स्वीडिश फिल्मकार अर्ने भी फिर कभी दोबारा यह देखने के लिए अबूझमाढ़ नहीं लौटे कि उनका चेंदरू कैसा है. चलिए अब आपको यह बताया जाए कि चेंदरू कैसा है और क्या कर रहा है.

चेंदरू की हालत बहुत अच्छी नहीं है. वह गढ़बेंगाल में उसी कुकुर नदी के किनारे रहता है जहां वह बचपन में दौड़-दौड़कर मछलियां पकड़ा करता था. कुकुर नदी वही नदी है जहां पिछले साल बाढ़ आई थी. इस बाढ़ में चेंदरू के घर के साथ-साथ उसकी बहू मंगनी और नाती प्यारी बह गए थे. बाढ़ से उपजी भीषण तबाही के बावजूद चेंदरू ने नदी का साथ नहीं छोड़ा है. काफी जोर देने पर वह सिर्फ इतना कहता है, ‘नदी उसकी मां है.’ चेंदरू ने अपनी मेहनत से एक नयी झोपड़ी तैयार कर ली है. इस झोपड़ी में वह अपनी पत्नी जाटा के साथ रहता है. चेंदरू का एक लड़का शंकर काष्ठ शिल्पी है. उसने अपना चूल्हा-चौका अलग कर लिया है. जबकि दूसरा बेटा जयराम खेती-बाड़ी करता है. चेंदरू को मुख्यमंत्री खाद्यान योजना के तहत एक रूपये में वितरित होने वाला चावल भी फिलहाल नसीब नहीं हो रहा है. सामान्य तौर पर ऐसा तब होता है जब सरकार का खाद्य विभाग किसी गरीब की दिनचर्या में अमीरी ढूंढ़ लेता है. माना जा सकता है कि एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म में काम करने वाले चेंदरू को सरकार ने ‘अमीर’ मान लिया है. चेंदरू अपने और अपनी पत्नी के भरण-पोषण के लिए अब भी मछलियां मारता है. बूढ़े चेंदरू को कुछ समय पहले क्षय रोग (टीबी) ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था. जब इस बात का हो-हल्ला मचा कि उसे टीबी हो गई है तब स्थानीय प्रशासन ने उसे इलाज के लिए एक हजार रुपए की आर्थिक सहायता दी थी. अब उसकी आंखों ने देखना भी लगभग बंद कर दिया है. फिर भीे वह पेट की भूख से लड़ने के लिए जंगल जाकर कंदमूलों की तलाश कर ही लेता है.

ग्लैमर और प्रसिद्धि के जादू में नहाने के बाद साधारण से असाधारण और फिर असाधारण से साधारण होने वाले एक बच्चे का नाम है चेंदरू. किसी ने शायद चेंदरू से यह नहीं पूछा कि वास्तव में वह क्या चाहता है. चेंदरू पहले फिल्म में काम ही नहीं करना चाहता था. जब वह तैयार हुआ तो उसकी इच्छा वापस लौटने की नहीं थी. चेंदरू आज जिंदा तो है लेकिन अब वह आकाश में मौजूद चांद और तारों से ही अपने मन की बात कहता है. कभी कोई पत्रकार जाकर उससे कुछ पूछता है तो वह बेमन से टुकड़ों-टुकड़ों में सिर्फ इतना बताता है, ‘हां,गया था. लौटकर आ गया.’ इस स्टोरी का रिपोर्टर भी चेंदरू से मुलाकात कर उसे अपना सलाम देकर लौट आया है. क्या आप कभी चेंदरू से मिलना चाहेंगे? हालांकि इलाके में नक्सलवाद की जड़ें अपना कब्जा जमा चुकी हैं. बावजूद इसके एक छोटे-से साहस के बूते आप उस चेंदरू तक तो पहुंच ही सकते हैं जो दुख के पहाड़ों के बीचोबीच एक सलीब पर लटककर अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहा है.