आरक्षण कथा और पड़ चुकी प्रथा

आरक्षण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सभी के हितों को ध्यान में रखने की कोशिश की है मगर राजनेताओं और आरक्षण की ज़रूरत न होते हुए भी इसका लाभ उठाने की मंशा रखने वाले लोगों को इसमें कई गाँठें नज़र आ रही हैं. उन्हें क्रीमी लेयर यानी कि मलाईदार तबके को बाहर रखने के न्यायालय के निर्णय के पीछे कोई तुक-तान ही नज़र नहीं आ रही. कहा जा रहा है कि अभी तक सरकारी नौकरियों में ही आरक्षण लागू होने के 15 साल बाद भी अन्य पिछडे़ वर्गों का कुल प्रतिनिधित्व केवल 5 प्रतिशत के करीब ही है तो ऐसे में उच्च शिक्षा में भी ज्यादातर आरक्षित सीटें सामान्य श्रेणी के लोगों के खाते में चली जायेंगी और इस हालत में उनको पहले से भी ज़्यादा फायदा मिल जायेगा क्योंकि सामान्य सीटों की संख्या में तो कोई परिवर्तन किया ही नहीं जा रहा और ऊपर से 20-22 प्रतिशत उन सीटों का फायदा उन्हें और मिलेगा जिसका फायदा उठाने की स्थिति में ओबीसी उम्मीदवार नहीं होंगे.

मगर यदि किसी सीढ़ी में ऊपर के एक या दो पायदान ही हों और नीचे के पायदान नदारद हों तो ऐसा तो होगा ही. पहले नौकरियों के लिए लोग नहीं मिले तो अब उच्च शिक्षा के लिए भी नहीं मिलेंगे. सवाल ये है कि उल्टी गंगा बहाने की बजाय चीजों को सही क्रम में या फ़िर सभी को एक साथ क्यों नहीं होने दिया गया. मसलन ऐसा भी हो सकता था कि पिछडे तबकों के लिए ज़रूरी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का बंदोबस्त किया जाता  और साथ ही मान लीजिये उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण उच्च शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में भी दे दिया जाता. शुरुआती कुछ सालों तक आरक्षण का फायदा भले ही इन्हें उतना न मिलता और आरक्षित स्थान सामान्य वर्ग को चले जाते मगर जैसे ही शिक्षा ज़्यादा लोगों में और ऊपर की तरफ़ अपने पैर पसारती स्थितियां बदलती ही बदलतीं. ऐसा न करने की स्थिति में केवल 5 प्रतिशत पिछडे वर्गों के अगडे़(क्रीमी लेयर) ही बार बार मलाई खाते रहेंगे. मगर ऐसा करने के लिए हमारे नीति निर्माताओं को दूरदृष्टि और मेहनत करने की ज़रूरत होती सो ऐसा नहीं हो पाया.

मगर यदि किसी सीढ़ी में ऊपर के एक या दो पायदान ही हों और नीचे के पायदान नदारद हों तो ऐसा तो होगा ही. पहले नौकरियों के लिए लोग नहीं मिले तो अब उच्च शिक्षा के लिए भी नहीं मिलेंगे.

दरअसल मंडल कमीशन की सिफारिशों पर आधारित अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की जड़ में ही विवाद रहा है. पहले तो 1978 में बनाए गए मंडल कमीशन ने ओबीसी की गिनती के लिए 1931 की जनगणना को आधार बनाया और 47 साल में आए अनगिनत परिवर्तनों का ध्यान इसमें रखा ही नहीं गया. इसके अलावा इसके बाद आए कई सर्वेक्षणों ने ओबीसी की संख्या कुछ अलग ही बताई–मंडल कमीशन 52%, नेशनल सैम्पल सर्वे 36% और नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे 33%. यहाँ तक कि आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एल आर नाइक ने तो आयोग की सिफारिशों पर हस्ताक्षर करने तक से इनकार कर दिया था. उनका मानना था कि ओबीसी कोई एक नहीं बल्कि उच्च और अत्यधिक पिछड़ा दो वर्गों में विभक्त है और इन्हें एक साथ मिलाने पर सारा फायदा उच्च अन्य पिछडा वर्ग द्वारा हड़प लिए जाने का ख़तरा था. 

हालांकि मंडल आयोग का गठन तो आपातकाल के बाद आई जनता पार्टी की सरकार ने किया था मगर इसने अपनी रिपोर्ट 1980 में इंदिरा सरकार को सौंपी. रिपोर्ट की मुख्य सिफारिश थी अन्य पिछडा वर्ग के लिए केन्द्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 फीसद आरक्षण. चूंकि एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसद से कम निर्धारित कर दी थी इसलिए अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के 22.5 फीसद के ऊपर ये अधिकतम आरक्षण था जिसकी आयोग सिफारिश कर सकता था. मामले की गंभीरता को समझ कर इंदिरा गांधी और उनके बाद राजीव गांधी ने इस रिपोर्ट को 10 साल तक ठंडे बस्ते में ही पड़े रहने देने में अपनी भलाई समझी. 

इसके बाद 1989 में आई वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार जिसने अपने ग्यारह महीने के कार्यकाल में श्रीलंका से शांति सेना वापस बुलाने के अलावा अगर कुछ और उल्लेखनीय किया तो वो थी आपसी जूतम पैजार. ये देश की पहली गठबंधन सरकार थी और इसमें देवीलाल और चन्द्रशेखर जैसे महारथी शामिल थे. अगस्त 1990 तक आते-आते स्थितियां ऐसी बिगड़ी कि वीपी सिंह को ताऊ देवीलाल को सरकार से ही बर्खास्त करना पडा. बस उसके तीन चार दिन बाद और देवीलाल की उनको चुनौती देने वाली विशाल किसान रैली के 1-2 दिन पहले ही वी पी सिंह ने अचानक, मंडल कमीशन की पहली किश्त यानी कि केन्द्रीय नियुक्तियों में अन्य पिछडा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी. उनके इस अचानक निर्णय से न केवल पूरा देश बल्कि उनके निकटवर्ती, केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य और सरकार को समर्थन दे रहीं बीजेपी और वाम पार्टियां भी अचंभित रह गईं.

आने वाले कई महीनों तक देश में अराजकता का माहौल रहा और शायद ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि देशवासियों को तो छोड़ ही दें, आरक्षण लागू करने वालों से लेकर तमाम और दूसरे जिम्मेदार लोगों तक को इसके बारे में पहले से पता नहीं था. 

जानकारों का मानना है कि यदि थोड़ी बुद्धि और विवेक से काम लिया गया होता तो धीरे-धीरे जातियों को भूलने की कोशिश करता समाज एक नई तरह से दोफाड़ न हुआ होता क्योंकि आरक्षण की ज़रूरत से शायद ही किसी को इनकार हो मगर इसके और इसे लागू करने के तौर-तरीकों ने एक नए विवाद को जन्म दिया. मसलन 1931 से 1990 के बीच आज़ादी, बंटवारे की वजह से हुए सबसे ज़्यादा खटकने वाली बात जो रही वो ये कि आजादी के बाद से चले आ रहे अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण का ठंडे दिमाग से आंकलन इसके गुण दोषों को परखने और उससे सबक लेने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया.विस्थापन, हरित क्रांति, भूमिसुधारों और राजनीतिक उठापटक के चलते देश की सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों में काफी बदलाव आ चुके थे. मगर इन पर ध्यान देने की कोई ज़रूरत ही नहीं समझी गई. इसके अलावा इसके परिणाम जिनके ख़िलाफ़ जाने वाले थे उन्हें विश्वास में लेने के कोई प्रयास तो किए ही नहीं गए बल्कि उनके हर तार्किक-अतार्किक विरोध को पिछड़ी जातियों के दिमाग में उनके ख़िलाफ़ विष के बीज बोने के लिए इस्तेमाल किया गया. इसके अलावा सबसे ज़्यादा खटकने वाली बात जो रही वो ये कि आजादी के बाद से चले आ रहे अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण का ठंडे दिमाग से आंकलन कर दबे कुचले तबकों की उन्नति के इस तरीके के गुण दोषों को परखने और उससे सबक लेने का भी कोई प्रयास नहीं किया गया. 

आर्थिक सुधारों से पहले वाले दौर में अपेक्षाकृत असमृद्ध उत्तर प्रदेश और बिहार के कथित अगडे़ युवाओं के लिए ये किसी गहरे सदमे से कम नहीं था क्योंकि सरकारी नौकरियां हीं थीं जिनके भरोसे वे बेहतर भविष्य के सपने देखा करते थे.  उस पर तुर्रा ये कि उनको लग रहा था कि उनसे छीन कर ये नौकरियां जाट, यादव और कुर्मी जैसी उनके जैसी ही हालत वाली जातियों के युवाओं को दी जा रही हैं. कुछ मामलों में तो स्थितियां बिलकुल उलट ही थीं.

साफ था कि वी पी सिंह का फैसला अपनी राजनीतिक मजबूरियों और महत्वाकांक्षाओं का परिणाम ज़्यादा और सदियों से दबे कुचले लोगों की दशा सुधारने की मंशा से कम था जिसकी परिणति पूरे देश ने भुगती.

ऐसा ही कुछ वर्तमान यूपीए सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने भी मंडल कमीशन की दूसरी किश्त यानी कि अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 % आरक्षण लागू करने के लिए किया. न तो पिछले अनुभवों से कुछ सीखा गया, न सुप्रीम कोर्ट के पिछले सुझावों पर ही कोई ध्यान दिया गया. इसके अलावा उन्होंने एकतरफा ऐलान करके किसी और के लिए भी कुछ और सोचने समझने की गुंजाइश नहीं छोड़ी. पिछली बार के वीपी सिंह के फैसले से केवल एक चीज़ अलग हुई वो ये कि पिछला फैसला केवल एक सरकारी आदेश के ज़रिए आया था और इस बार ये आनन-फानन में संसद द्वारा एक कानून बनवा कर लागू करने की कोशिश की गई.

सवाल ये उठता है कि पिछड़ों के पहरुआ हमारे राजनेताओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा क्रीमी लेयर का प्रावधान रखे जाने पर और सुप्रीम कोर्ट को सीधे-सीधे जाति के आधार पर आरक्षण लागू किए जाने पर क्या आपत्ति है? 

जवाब है कि हमारा पूरा संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा जाति की कोई बात ही नहीं करता. अगर वो कहीं ऐसा करता भी है तो नकारात्मक संदर्भों में जैसे कि जाति के आधार पर किसी को अछूत नहीं माना जा सकता, किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता आदि इत्यादि. इसके अलावा आरक्षण का जो प्रावधान हमारे संविधान में रखा गया है वो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है न कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए. अब सुप्रीम कोर्ट का ये मानना है कि या तो वर्गों की पहचान किसी और न्याय संगत आधार पर हो या फिर अगर जातियों को आधार बनाया जाए तो उसमें से गैरज़रूरतमंद लोगों (क्रीमीलेयर) को बाहर करने पर ही संविधान में मौजूद परिभाषा के अनुरूप ज़रूरतमंद वर्ग बन सकता है. अनुसूचित जाति और जनजातियों के मामले में, इन्हें आरक्षण देते समय इनकी हालत इतनी दबी कुचली थी कि इन्हें जातियों के आधार पर ही आरक्षण देने का प्रावधान कर दिया गया. 

सुप्रीम कोर्ट का ये मानना है कि या तो वर्गों की पहचान किसी और न्याय संगत आधार पर हो या फिर अगर जातियों को आधार बनाया जाए तो उसमें से गैरज़रूरतमंद लोगों (क्रीमीलेयर) को बाहर करने पर ही संविधान में मौजूद परिभाषा के अनुरूप ज़रूरतमंद वर्ग बन सकता है.

राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक और निजी स्वार्थ वश यही बात समझ कर भी नहीं समझना चाहते. उन्होंने पहले भी इस तरह की बात का विरोध किया और 1993 में सुप्रीम कोर्ट के डंडे के बाद जब इसे लागू भी किया तो क्रीमी लेयर के दायरे से खुद को बाहर रखा—सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार द्वारा 1993 में जारी ऑफिस मेमोरेंडम में क्रीमीलेयर के अंतर्गत संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों जैसे कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, नौकरशाहों तथा सेना अधिकारियों के बच्चों को तो शामिल कर दिया गया मगर ये राजनीतिकों के मसले पर एक शब्द भी नहीं बोला. इस बार भी हालांकि पांच जजों की बेंच में से एक जज ने वर्तमान और पूर्व सांसदों और विधायकों को क्रीमीलेयर में शामिल करने की बात कही है मगर ऐसा होना नामुमकिन ही है. 

क्रीमीलेयर के मसले पर दोनों पक्षों की तरफ से कुछ और भी तर्क दिए जा रहे हैं जैसे कि आरक्षण के पक्षधर राजनीतिज्ञ कह रहे हैं कि ये आर्थिक लाभ का नहीं बल्कि सामाजिक न्याय का उपकरण है इसलिए आर्थिक आधार पर क्रीमी लेयर बना कर किसी को भी इससे वंचित करना उचित नहीं. तो उसपर ये भी कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय दिलाने के लिए तो औऱ भी कई तरह की योजनाएं और कानून बनाए जा सकते थे मगर सबसे पहला जो काम किया गया वो नौकरियों में आरक्षण देकर उनकी सामाजिक स्थिति के साथ आर्थिक स्थिति भी मज़बूत करना था. वैसे भी कम से कम आज के वैश्वीकरण वाले दौर में लोगों की हर तरह की स्थितियां पैसे की बिना पर ही बनती और बिगड़ती हैं…जैसे कि लंबी कार में जा रहे एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति और साइकिल पर हांफ रहे एक सवर्ण में से किसको आजकल ज़्यादा सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है सोचना मुश्किल नहीं. तो ऐसे में ये सोचना पूरी तरह अनुचित नहीं कि जब आर्थिक रूप से समृद्ध व्यक्ति सामाजिक रूप से भी प्रतिष्ठित होगा तो फिर उसे आरक्षण में शामिल करके किस सामाजिक न्याय की बात की जा सकती है. 

दूसरी ओर कुछ लोग ये तर्क दे रहे हैं कि अब जब कोर्ट ने आर्थिक आधार पर कथित पिछड़ी जातियों के संपन्न लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया है तो आर्थिक आधार पर ही कथित अगड़ी जातियों के विपन्न लोगों को भी आरक्षण के दायरे में लाया जाना चाहिए…भले ही ये बात पहले सही न हो मगर आज के संदर्भ में इस तरह के तर्क को पूरी तरह से कैसे नज़र अंदाज़ किया जा सकता है? मायावती जैसे दलित नेताओं ने तो इस पर खुल के बात करना भी शुरु कर दिया है मगर ये सब तर्क की कसौटी पर कस के नहीं बल्कि राजनीतिक लाभ हानि का हिसाब कर के ही किया जा रहा है. 

आरक्षण लागू करते समय मंशा ये थी कि थोड़े–थोड़े समय के बाद लाभार्थियों की तालिका में संशोधन किया जाएगा और ऊपर उठ चुके वर्गों या लोगों को इसके दायरे से बाहर लाया जाएगा. मगर ये तालिका छोटी होने की बजाय लंबी ही होती गई औऱ आगे भी होने की उम्मीद है. अब जिस तरह की स्थितियां बन चुकी हैं उनमें आरक्षण का मकसद हासिल करके इसे खत्म करने की संभावनाएं न के बराबर दिखती है. क्योंकि आरक्षण का आधार अब ज़रूरत की पूर्ति नहीं बल्कि छुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति है.

संजय दुबे

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