विस्तार का सार

मनमोहन सरकार के मंत्रिमंडल में हुए हालिया फेरबदल ने कई तरह की हलचलें पैदा कीं. कुछ को यह हांफ रही सरकार को 2014 के आम चुनाव से पहले ऊर्जा देने की कोशिश लगी तो कुछ को नई बोतल में पुरानी शराब जैसी कवायद. इस फेरबदल की खास बातों पर एक नजर. अतुल चौरसिया और हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

भ्रष्टाचार पर भ्रम

मंत्रिमंडल विस्तार को अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के सम्मान के रूप में परिभाषित किया है.  उनका तर्क है कि एक तरफ तो सलमान खुर्शीद पर अपने ट्रस्ट कीआड़ में विकलांगों का पैसा गबन करने का आरोप लग रहा है और दूसरी ओर सरकार ने उनका प्रमोशन करके उन्हें विदेशमंत्री के पद से नवाजा है. जानकार मानते हैं कि इस कदम से कहीं न कहीं उन लोगों को संदेश देने की कोशिश की गई है जो लोग सरकार को बार-बार भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा कर रहे थे. यही बात कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के बारे में भी कही जा सकती है. अपने रिश्तेदारों को कोल ब्लॉक आवंटित करने के संगीन आरोप उनके ऊपर लगे हुए हैं. कयास लगाए जा रहे थे कि मंत्रिमंडल से उनकी छुट्टी तय है. पर वे अपने पद पर कायम हैं. इसी तरह दो साल पहले आईपीएल गड़बड़झाले की भेंट चढ़ गए शशि थरूर भी एक बार फिर से मंत्रिमंडल में वापसी करने में सफल हो गए हैं. यहां सरकार की मंशा पर एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या दो साल बाद अपराध, अपराध नहीं रह जाता. मामले जहां के तहां अटके पड़े हैं और थरूर फिर से मंत्री बन गए हैं. भ्रष्टाचार की बनिस्बत अगर मंत्रिमंडल के विस्तार को देखा जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि सरकार भ्रष्टाचार के प्रति न तो गंभीर है और न ही भ्रष्टाचार के आरोपों को किसी तार्किक परिणति तक पहुंचाने की इच्छा रखती है.

 

राहुल की रहबरी?
मीडिया हलकों में एक बात अक्सर कही सुनी जाती है कि कांग्रेस में किसी भी युवा नेता का कद इतना आगे नहीं बढ़ने दिया जाता कि वह आगे चलकर राहुल गांधी पर ही भारी पड़ने लगे. मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि इस कवायद में पार्टी महासचिव राहुल गांधी की अच्छी-खासी छाप होगी, लेकिन एक बड़ी हद तक ऐसा नहीं हुआ. कैबिनेट में शामिल हुए 17 नए चेहरों में से कोई भी राहुल ब्रिगेड का सदस्य नहीं है. इनमें सबसे कम उम्र के मंत्री मनीष तिवारी हैं जो 48 वर्ष के हैं. हां, बड़े पैमाने पर टीम राहुल के सदस्यों के प्रोमोशन जरूर हुए हैं. जितेंद्र सिंह, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, कुमारी शैलजा, राजीव शुक्ला और आरपीएन सिंह की जिम्मेदारियां बढ़ा दी गई हैं. कोई नई एंट्री न होने के चलते अब भी मंत्रिमंडल की औसत उम्र 68 साल बनी हुई है. इसके बचाव में कांग्रेसी तर्क देते हैं कि यह कोई ग्लैमर का क्षेत्र नहीं है जहां कम उम्र, सुंदर चेहरों की जरूरत होती है. यह भारत का मंत्रिमंडल है जिसमें अनुभव की जरूरत है, कामकाज की जरूरत है और उसी के हिसाब से यहां लोग नियुक्त किए जाते हैं.

 

काम का काम तमाम
कांग्रेस की ओर से तो यह कहा जा रहा है कि मंत्रिमंडल विस्तार के दौरान प्रदर्शन का ध्यान रखा गया है और अच्छा काम करने वालों को प्रोमोशन मिला है. लेकिन यह पूरा सच नहीं है. अपने-अपने मंत्रालयों में अच्छा काम कर रहे कम-से-कम दो मंत्रियों को उनके मंत्रालय से विस्थापित करके दूसरे मंत्रालय में स्थापित कर दिया गया है. इनमें पहला नाम है युवा व खेल मंत्री अजय माकन का. खेल संगठनों में नेताओं के दबदबे को खत्म करने से लेकर खेल प्रशासन में खिलाड़ियों की भागीदारी बढ़ाने समेत कई स्तरों पर माकन बदलाव की कोशिश में थे. लेकिन कई खेल संगठनों के आला पदों पर कांग्रेस और सहयोगियों के बड़े नेताओं के काबिज होने की वजह से माकन का राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक कानून की शक्ल नहीं ले पाया. माकन के जाने के बाद इसका भविष्य अधर में लटक गया है. राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में गड़बड़ी का मामला जब सामने आया तो उन्होंने अपनी ही पार्टी के सुरेश कलमाड़ी के खिलाफ मोर्चा खोलने से भी परहेज नहीं किया. वहीं दूसरी तरफ पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी हैं जिन्होंने पेट्रोलियम मंत्रालय में रहते हुए केजी बेसिन मामले में उस रिलायंस को चुनौती दी जिससे उलझने में सरकार में बैठे हुए बड़े-बड़े लोग बचते हैं.
 

आंध्र की आंधी
2009 के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश ने कांग्रेस की झोली में सबसे ज्यादा सांसद (31) भेजे थे. 2012 में केंद्र सरकार ने आंध्र की झोली में सबसे ज्यादा मंत्री डाले हैं. असल में कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व आंध्र प्रदेश में पिछले तीन साल के दौरान गंवाई गई जमीन को दिल्ली से आपूर्ति के जरिए हथियाना चाहता है. चुनाव के लिहाज से आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के लिए उम्मीदें सबसे क्षीण हैं. आधा प्रदेश तेलंगाना चाहता है और वह कांग्रेस को धोखेबाज की नजर से देखता है. छिटपुट उपचुनावों ने यह बात सिद्ध भी कर दी है. बाकी आधा प्रदेश जगन मोहन रेड्डी के साथ भावनात्मक रिश्ता जोड़ चुका है. लिहाजा जिस कांग्रेस ने यहां से 31 सीटें जीती थीं अब उसमें 11 सीटें पाने का विश्वास भी बचा नहीं दिखता. जेल में रहते हुए जगन ने उपचुनाव के दौरान सभी सीटों पर कब्जा जमाया है. जनता को रिझाने की गरज से कांग्रेस ने ताजा विस्तार में आंध्र के एक साथ छह सांसदों को शामिल किया है. इनमें से तीन मंत्रियों को काबीना मंत्री का दर्जा मिला है. एक तथ्य यह भी है कि जिन लोगों को कांग्रेस ने मंत्रिमंडल में शामिल किया है उनमें से ज्यादातर ने जगन मोहन रेड्डी के पिता वाईएसआर रेड्डी के प्रभावशाली नेतृत्व में चुनाव जीते हैं. लिहाजा वे अगले चुनाव में कांग्रेस का कुछ भला कर पाएंगे, इस पर संशय बरकरार है.

 क्षेत्रीय असंतुलन

मंत्रिमंडल विस्तार में संतुलन का अभाव झलकता है. कई राज्यों को पर्याप्त नेतृत्व नहीं मिला है. सबसे अहम है पूर्वी भारत. प. बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और पूर्वोत्तर के सात राज्यों को मिलाकर इस इलाके से कुल 142 सांसद लोकसभा में आते हैं. फिर भी इन राज्यों से एक भी कैबिनेट मंत्री को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है. पहले इन राज्यों से तीन कैबिनेट मंत्री थे. प. बंगाल से प्रणब मुखर्जी व मुकुल रॉय और झारखंड के सुबोधकांत सहाय कैबिनेट मंत्री थे. इस बार प. बंगाल के तीन नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल तो किया गया है लेकिन इन सभी को राज्य मंत्री का दर्जा मिला है. वहीं बिहार के तारिक अनवर भी राज्य मंत्री ही बनाए गए हैं. अरुणाचल प्रदेश के निनोंग एरिंग भी राज्य मंत्री ही बने हैं. झारखंड के सुबोधकांत सहाय को हटाया तो गया लेकिन उनकी जगह इस राज्य के किसी नेता को मंत्रिमंडल में नहीं शामिल किया गया. महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य की अनदेखी का आरोप भी कांग्रेस पर लग रहा है. मध्य प्रदेश की अनदेखी पर खुद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने असंतोष जताया है. असंतुष्टि हरियाणा के नेताओं में भी है. यहां से कुल नौ सांसद हैं और सिर्फ एक मंत्री कुमारी शैलजा हैं.
 

रेल भवन में राष्ट्रीय दल
आंकड़ों में दिलचस्पी रखने वालों के लिए मजेदार तथ्य है कि 17 साल के बाद रेल मंत्रालय में देश की राष्ट्रीय पार्टी की वापसी हुई है. कई कांग्रेसी इससे खुश हैं कि किसी तरह रेल मंत्रालय बिहार-बंगाल के चंगुल से छूट गया और पवन बंसल को नया रेलमंत्री बनाया जा चुका है . 1995 में नरसिंहा राव की सरकार गिरने के बाद से ही राष्ट्रीय पार्टियों के हाथ से यह मंत्रालय निकल गया था. गौरतलब है कि रेल मंत्रालय वह विभाग है जिसका सीधा संपर्क देश के खासो-आम से रहता है. यह सरकारों की लोकलुभावन योजनाओं का अहम हिस्सा है. बाद में देश में गठबंधन की राजनीति ने जोर पकड़ा तो यह मंत्रालय क्षेत्रीय और सहयोगी पार्टियों का सबसे पसंदीदा विभाग बन गया. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सन 96 से लेकर 2009 के बीच बिहार के तीन बड़े नेताओं नीतीश कुमार, लालू यादव और रामविलास पासवान ने अलग-अलग समय पर इसकी कमान थामी. एनडीए के कार्यकाल में यह सहयोगी दल जदयू के हिस्से में गया. बाद में यूपीए के शासनकाल में यह लालू और ममता का प्रिय विभाग रहा. बंसल को रेल मंत्रालय मिलने के बाद अब उम्मीद लगाई जा रही है कि सरकार अपने मनमुताबिक इस विभाग को चलाएगी. इस बीच सबसे ज्यादा अटकलें इसके निजीकरण की हैं. आने वाले दिनों में एफडीआई प्रेमी मनमोहन सिंह का रेल मंत्रालय पर रुख काबिलेगौर होगा.

चुनावी मजबूरी
मंत्रिमंडल विस्तार की प्रमुख वजह चुनावी है. अगले चुनाव में राहुल गांधी की अगुवाई में उतरने की संभावनाओं के बीच कांग्रेस के लिए यह जरूरी था कि सरकार में बदलाव किए जाएं. यही वजह है कि कई अहम मंत्रालयों की जिम्मेदारी नए लोगों को दी गई. युवा नेताओं को प्रमुख मंत्रालयों की जिम्मेदारी देने को भी अगले लोकसभा चुनावों की तैयारियों से ही जोड़ कर देखा जा सकता है. कांग्रेस ने कई राज्यों में होने वाले दूसरे चुनावों का ध्यान भी मंत्रिमंडल विस्तार के दौरान रखा है. पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव होने वाले हैं. इसलिए वहां के तीन प्रतिनिधियों को मंत्रिमंडल में शामिल करके पार्टी आलाकमान ने राज्यों के लोगों को उम्मीद बंधाने की कोशिश की है. राजस्थान में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. राज्य से दो नए चेहरे लालचंद कटारिया और चंद्रेश कुमारी कटोच मंत्रिमंडल में आए हैं. इनमें कटोच को तो कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है. कांग्रेस ऐसा करके प्रदेश के ठाकुर मतदाताओं को अपने साथ करना चाहती है. कर्नाटक में भी अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं इसलिए एसएम कृष्णा को मंत्रिमंडल से विदा करने के बाद के रहमान खान को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है. गुजरात के दिनशा पटेल को राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री बनाए जाने को भी गुजरात विधानसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है.

 

बाजार का दबाव
मंत्रिमंडल विस्तार के क्रम में मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल को ध्यान से देखने पर यह संदेह गहराता है कि कुछ फैसले बाजार के दबाव में लिए गए. इनमें सबसे बड़ा फैसला है पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी की विदाई. माना जा रहा है कि रिलायंस के दबाव में रेड्डी को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाकर गांधी परिवार के वफादार माने जाने वाले वीरप्पा मोइली को वहां बैठाया गया है. रेड्डी के कार्यकाल में उनके मंत्रालय ने कई बार रिलायंस को चुनौती दी. रिलायंस केजी बेसिन के शेयर ब्रिटेन की एनर्जी कंपनी बीपी को बेचना चाहता था. यह सौदा तकरीबन 40,000 करोड़ रुपये का था. सरकार के साथ हुए रिलायंस के करार के मुताबिक केजी बेसिन में विदेशी कंपनी को हिस्सेदारी बेचने के लिए कैबिनेट की मंजूरी लेना जरूरी था. लेकिन रेड्डी ने इसकी मंजूरी नहीं दी. जब रिलायंस ने लगातार करार से कम गैस का उत्पादन किया तो रेड्डी के मंत्रालय ने रिलायंस पर 7,000 करोड़ रुपये का जुर्माना ठोक दिया. रेड्डी ने उन अधिकारियों को भी पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया जिनकी नियुक्ति मुरली देवड़ा के कार्यकाल में हुई थी और जिनके बारे में यह माना जाता था कि वे रिलायंस के करीबी हैं. बाजार की ओर से यह दबाव सरकार पर है कि वह आर्थिक सुधारों की गति बढ़ाए. रेलवे में निजी पूंजी लाने का मसला भी इनमें से एक है. पिछले काफी दिनों से सहयोगी दल तृणमूल के पास यह मंत्रालय होने की वजह से मनमोहन सिंह सरकार रेलवे में कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पा रही थी.

काम को सम्मान
काम का काम तमाम करने के तो तमाम किस्से इस विस्तार में देखने को मिले लेकिन कुछ फैसले ऐसे भी हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि काम करने वालों को भी कुछ तरजीह मिली है. हालांकि यह सरकार की दुविधा को भी दर्शाता है. काम करने के लिए अजय माकन का प्रोमोशन होता है और काम करने के लिए जयपाल रेड्डी का मंत्रालय छीन लिया जाता है. खैर युवा एवं खेल मंत्रालय में अपने कामकाज की धाक जमाने वाले अजय माकन के बारे में यह राय थी कि उन्हें प्रोमोशन मिलेगा. लंदन में संपन्न हुए ओलंपिक खेलों में भारत की पदक तालिका इतिहास की सबसे बड़ी संख्या दिखा रही थी. इसके पीछे माकन की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई. यही बात टेलीकॉम मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे सचिन पायलट और वाणिज्य मंत्रालय में राज्य मंत्री रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में कही जा सकती है. इन्हें क्रमश: कॉरपोरेट अफेयर और ऊर्जा मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है.  अपनी सीमाओं में रहते हुए इन्होंने बेहतर प्रदर्शन किया था. काम के दम पर मंत्रिमंडल का हिस्सा बनने वालों में एक नाम मनीष तिवारी का भी है. लंबे समय से सरकार की तमाम आपदाओं (2जी, सीडब्ल्यूजी, कोलगेट, अन्ना आंदोलन) में मीडिया के हमले का बहादुरी से सामना करने वाले मनीष तिवारी को सूचना प्रसारण मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार दिया गया है.
 

सहयोगियों पर संशय
कांग्रेस के रणनीतिकारों की ओर से तमाम एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद संप्रग का प्रमुख सहयोगी डीएमके इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ कि उसकी तरफ से मंत्रिमंडल विस्तार में कोई हिस्सा ले. राजनीतिक जानकारों की मानें तो पिछले दो महीने से चल रही कयासबाजियों के बीच मंत्रिमंडल विस्तार में देरी की असली वजह डीएमके ही है. कांग्रेस को लगता था कि डीएमके को मंत्रिमंडल में अपने कोटे के पदों के लिए अपने प्रतिनिधियों को भेजने के लिए मना लिया जाएगा. अब सवाल यह उठता है कि ए राजा और दयानिधि मारन के हटने से खाली हुए कैबिनेट मंत्री के दो पदों पर पार्टी ने किसी को क्यों नहीं भेजा. दरअसल, तमिनलाडु में जयललिता के बढ़ते प्रभाव और केंद्र सरकार को लेकर बढ़ती नाराजगी को देखते हुए डीएमके में केंद्र सरकार से समर्थन वापसी का मंथन चल रहा है. सरकार में डीएमके की भागीदारी नहीं बढ़ने का मतलब यह है कि समर्थन वापसी का खतरा टला नहीं. मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी सरकार का समर्थन बाहर से कर रही है. इनमें से भी किसी को सरकार में शामिल होने के लिए मनाया नहीं जा सका. इनमें से किसी के सरकार में शामिल होने की सूरत में सरकार की स्थिरता को थोड़ा बल मिलता. ताजा सूरते हाल यह है कि अगर डीएमके ने हाथ खींचा तो सपा सरकार को गिराने में कोई वक्त नहीं गंवाएगी और अगर डीएमके ने ऐसा नहीं किया तो जबरदस्त लेन-देन के दरवाजे तो खुले ही रहेंगे.