भूल बना विलायती बबूल

गुजरात के सुदूर उत्तर में स्थित है कच्छ जिला. इसका ज्यादातर भाग रण का कच्छ नाम से मशहूर एक बेहद संवेदनशील रेगिस्तानी पारिस्थितिकीय तंत्र में पड़ता है. इस ऊबड़-खाबड़ और चट्टानी इलाके की बाहरी सीमाओं पर कई छोटे-छोटे गांव हैं जिनमें बसने वाली आबादी में मुख्य रूप से मुस्लिम और दलित हैं. इनमें से अधिकांश लोग गरीबी की रेखा से नीचे जिंदगी बसर कर रहे हैं. विकास की सरकारी परियोजनाओं के यहां कहीं भी दर्शन नहीं होते. ऊपर से सूखे की मार और सिमटते पारंपरिक संसाधनों के चलते उनकी जिंदगी के हालात हाल के वर्षों में और भी भयावह होते गए हैं. मजबूरी में यहां के लोगों ने एक खतरनाक पेड़ को अपनी जीविका का साधन बना लिया है. गंडा बावर नाम के इस कांटेदार और झड़ीनुमा पेड़ की  लकड़ी को जलाकर उससे कोयला बनाया जाता है और स्थानीय लोग इसे दलालों को कौड़ियों के भाव बेच देते हैं. इससे होने वाले प्रदूषण से न केवल उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है बल्कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को भी खतरा पैदा हो गया है.

बात दो दशक पहले की है. इस इलाके में रेगिस्तान के विस्तार को रोकने के लिए सरकार ने बबूल जैसी एक प्रजाति के पेड़ को इजरायल से यहां लाकर लगाना शुरू किया. गंडाबावर या विलायती बबूल के नाम से जाने जाना वाला ये पेड़ तेजी से बढ़ता और फैलता है. अब ये पेड़ कई स्थानीय परिवारों के लिए जीविका का एकमात्र साधन बन गया है. इसके चलते इन पेड़ों की अधाधुंध कटाई होने लगी है. लोग पेड़ काटते हैं और इसकी लकड़ी का बड़ा सा ढेर बनाकर उसे जलाते हैं जिससे चारकोल यानी कोयला बनता है. स्थानीय लोग इसे कोलसा कहते हैं. बिचौलिये इन गांवों में ट्रक लेकर पहुंचते हैं और इसे कौड़ियों के दाम पर खरीद लेते हैं. गंडा बावर नाम के इस कांटेदार और झड़ीनुमा पेड़ की  लकड़ी को जलाकर उससे कोयला बनाया जाता है और स्थानीय लोग इसे दलालों को कौड़ियों के भाव बेच देते हैं. इससे होने वाले प्रदूषण से न केवल उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है बल्कि इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को भी खतरा पैदा हो गया है.

वजीरा गांव के वली साहिब कहते हैं, पहले हमें एक बोरे के 300 रुपये मिलते थे मगर बिचौलियों ने दाम घटाकर 200 रुपये प्रति बोरा कर दिया है. लेकिन हमें आजीविका का नया स्रोत मिल गया है और अब हमें काम की तलाश में गांव छोड़कर कहीं जाने की जरूरत नहीं हैं. मगर पेड़ का विनाशकारी प्रभाव साफ देखा जा सकता है. कोयला बनाने के लिए बड़े पैमाने पर लगाई गई आग के घने धुएं से लोगों को सांस और आंखों की कई बीमारियां हो रही हैं. यहां सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की उपस्थिति नहीं के बराबर है और चूंकि इलाका मुख्यधारा से लगभग कटा हुआ है इसलिए स्वास्थ्य अधिकारियों की इस इलाके पर नज़रें इनायत बमुश्किल ही होती हैं.

वैसे गंडा बावर काफी पहले से ही एक समस्या बन गया था. दरअसल इसके आसपास किसी दूसरे पौधे का पनपना मुश्किल होता है इसलिए इसकी वजह से वनस्पतियों की स्थानीय प्रजातियों के अस्तित्व पर ख़तरा मंडराने लगता है. इसके अलावा ये पेड़ बड़ी मात्रा में भूगर्भीय पानी का शोषण करता है जिस कारण जहां-जहां भी गंडा बावर की अधिकता है वहां भूमिगत जल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है.

साफ है कि गंडा बावर को लगाए जाने से पहले इसके संभावित प्रभावों को लेकर कोई गंभीर सर्वेक्षण नहीं किया गया. पहले सरकार ने इस पेड़ को काटने पर प्रतिबंध लगाया हुआ था जो तीन साल पहले हटा लिया गया. अब चूंकि गरीबी से बदहाल कच्छ के परिवार बड़ी संख्या में इस पर निर्भर हो गए हैं इसलिए एक अहम सवाल उनकी आजीविका का भी है. जरूरत इस बात की है कि इस क्षेत्र का गंभीरता से सर्वे किया जाए और गंडा बावर का कोई ऐसा विकल्प तलाशा जाए जो पारिस्थितिकी के अनुकूल होने के साथ-साथ लोगों की आय का वैकल्पिक स्रोत भी बन सके.

योगिंदर सिकंद